बीच अधर में ही आधी रात को जब राज्यसभा की कार्यवाई जैसे ही समाप्त किए जाने की घोषणा हुई, देवराज इंद्र ने राहत की सांस ली. कई दिनों से टीवी पर आंख गड़ाए गड़ाए उनकी आंखे दुखने लगी थी. चैनल बदलते बदलते हाथ जवाब देने लगे थे. लोकपाल को लेकर धड़का लगा हुआ था. लेकिन अब लोकपाल के लटक जाने से वो राहत महसूस कर रहे थे. क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं धरती की ये छूत की बीमारी स्वर्गलोक में न लग जाय और यहां भी शोषित-उपेक्षित देव लोकपाल की रट न लगाने लगे. आखिर अभी स्वर्ग में राज तो उनका और उनके भरोसेमंद देवताओं का ही है. उपर से नीचे तक सबको पट्टी पढ़ाकर युगों युगों से वो ही तो स्वर्गाधीश बने हुए हैं, लेकिन अगर यहां भी लोकपाल लागू हो जाये तो. ये सोचकर ही इंद्र महाराज को झुरझुरी आ गई. और आए भी क्यों न ! अगर ऐसा हो जाए तो फिर इंद्रासन तो गया. सारे ऐशो आराम हाथ से निकल जाएंगे. फिर न इंद्रसभा सजेगी और न ही रंभा, उर्वशी, मेनका जैसी अप्सराओं के नृत्य का आनंद उठाने का मौका मिलेगा. सबसे दुखद तो ये होगा कि लोकपाल लागू होने के बाद स्वर्ग को नर्क बनते देर नहीं लगेगी. सब मुंह फाड़ने लगेंगे. अपने हक की बात करेंगे. आय-व्यय का हिसाब मांगने लगेंगे. फिर कैसे निपटेंगे वो.
वैसे इंद्र को किसी और पर भरोसा था या नहीं भारतवर्ष के काबिल नेताओं पर तो पूरा भरोसा था और इस भरोसे से ही उन्हें उम्मीद थी कि नेता चाहे कुछ भी हो जाए, लोकपाल को पारित होने देंगे नहीं. कोई न कोई अड़ंगा लगाएंगे ही. आखिर कौन अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारना चाहेगा. लोकपाल के लागू होने का मतलब है धरती के सबसे फायदेमंद धंधे यानी नेतागिरी के धंधे में मंदी की दस्तक. लोकपाल लागू हो गया तो कमाई के सारे रास्ते बंद हो जाएंगे. फिर कौन नेतागिरी के धंधे में उतरेगा. और ऐसे में जब सारी दुनिया सारे क्षेत्रों में मंदी के दौर से गुजर रही है इस हंड्रेड परसेंट मुनाफे वाले सेक्टर को घाटे में डालने का काम नेता नहीं कर सकते. आखिर उनका भी तो जनता के प्रति हो या न हो धंधे के प्रति कोई ईमान तो है ही. इसीलिए इंद्र को उम्मीद थी कि पक्ष के नेता हों या विपक्ष के, साइकिल-मोटरसाइकिल या हाथी-घोड़ा से सवारी करनेवाले हों, बिजली युग में भी ढिबरी जलानेवाले हों, हाथ-पैर का इस्तेमाल करते हों या तीर-तलवार का, या फिर फूल से फुसलाने वाले हों... कोई भी लोकपाल के फंदे में अपनी गर्दन नहीं फंसवाना चाहेगा. चाल-चरित्र-चेहरे की बात चाहे कोई कितनी भी कर ले हैं तो सभी नेता ही. और ये तो सभी जानते हैं कि नेता सिर्फ नेता होते हैं जनता नहीं कि कभी भी कहीं भी बेवकूफ बन जाय. लोकपाल को पास कराने का मतलब तो यही होता. और इंद्र महाराज को भरोसा था कि धरती के नेता लोकपाल को खुद पास कराकर अपनी हालत आ बैल मुझे मार वाली नहीं करेंगे.
कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये कि इंद्र महाराज खुश थे कि लोकपाल लटक गया है और बला टल गई है. हाल फिलहाल इंद्रासन पर अब कोई खतरा मंडराने वाला नहीं. अगर देवलोक का कोई बाशिंदा लोकपाल के लिए चूं चपड़ करेगा तो धरती के नेताओं की तरह वो भी निपट लेंगे. आखिर वो देवेश हैं, जिनके मंत्रिमंडल में एक से एक दिग्विजयी देव भरे पड़े हैं. इंद्र महाराज ने गर्व से गरदन अकड़ाई. शीशे में खुद को निहारा और निकल पड़े आदेश देने के लिए. लोकपाल के लटकने की खुशी में स्वर्ग में जश्न मनाने का आदेश देने.
इधर धरती पर नेता लोकपाल के लटकने की खुशी में एक दूसरे को बधाई दे रहे थे और शुक्र मना रहे थे कि बला टल गई. फिर सबने एक स्वर में शपथ ली कि हम संसद का अपमान नहीं होने देंगे. लोकपाल को कभी नहीं आने देंगे. अगर लोकपाल आया तो कभी पास नहीं होने देंगे. खंचिया भर संशोधन लाएंगे और मजबूत क्या कमजोर लोकपाल भी नहीं बनाएंगे. इस शपथ के बाद नेता भी लोकपाल लटकने की खुशी में जश्न मनाने निकल पड़े. आप भी जश्न मनाइए कि लोकपाल पास नहीं हुआ. आखिर पास हो भी जाता तो क्या होता. कितने कानून बने और पास हुए. लेकिन न नेता बदले और न देश और न ही बदली देश की जनता की किस्मत. जो कभी बदलेगी भी नहीं, क्योंकि जनता की किस्मत में कुछ है ही नहीं बदलने के लिए.
(यह व्यंग्य रचना पटना से निकलने वाली पत्रिका ‘आवाज जन मन’ की में प्रकाशित है)
Sunday, March 4, 2012
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