बीच अधर में ही आधी रात को जब राज्यसभा की कार्यवाई जैसे ही समाप्त किए जाने की घोषणा हुई, देवराज इंद्र ने राहत की सांस ली. कई दिनों से टीवी पर आंख गड़ाए गड़ाए उनकी आंखे दुखने लगी थी. चैनल बदलते बदलते हाथ जवाब देने लगे थे. लोकपाल को लेकर धड़का लगा हुआ था. लेकिन अब लोकपाल के लटक जाने से वो राहत महसूस कर रहे थे. क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं धरती की ये छूत की बीमारी स्वर्गलोक में न लग जाय और यहां भी शोषित-उपेक्षित देव लोकपाल की रट न लगाने लगे. आखिर अभी स्वर्ग में राज तो उनका और उनके भरोसेमंद देवताओं का ही है. उपर से नीचे तक सबको पट्टी पढ़ाकर युगों युगों से वो ही तो स्वर्गाधीश बने हुए हैं, लेकिन अगर यहां भी लोकपाल लागू हो जाये तो. ये सोचकर ही इंद्र महाराज को झुरझुरी आ गई. और आए भी क्यों न ! अगर ऐसा हो जाए तो फिर इंद्रासन तो गया. सारे ऐशो आराम हाथ से निकल जाएंगे. फिर न इंद्रसभा सजेगी और न ही रंभा, उर्वशी, मेनका जैसी अप्सराओं के नृत्य का आनंद उठाने का मौका मिलेगा. सबसे दुखद तो ये होगा कि लोकपाल लागू होने के बाद स्वर्ग को नर्क बनते देर नहीं लगेगी. सब मुंह फाड़ने लगेंगे. अपने हक की बात करेंगे. आय-व्यय का हिसाब मांगने लगेंगे. फिर कैसे निपटेंगे वो.
वैसे इंद्र को किसी और पर भरोसा था या नहीं भारतवर्ष के काबिल नेताओं पर तो पूरा भरोसा था और इस भरोसे से ही उन्हें उम्मीद थी कि नेता चाहे कुछ भी हो जाए, लोकपाल को पारित होने देंगे नहीं. कोई न कोई अड़ंगा लगाएंगे ही. आखिर कौन अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारना चाहेगा. लोकपाल के लागू होने का मतलब है धरती के सबसे फायदेमंद धंधे यानी नेतागिरी के धंधे में मंदी की दस्तक. लोकपाल लागू हो गया तो कमाई के सारे रास्ते बंद हो जाएंगे. फिर कौन नेतागिरी के धंधे में उतरेगा. और ऐसे में जब सारी दुनिया सारे क्षेत्रों में मंदी के दौर से गुजर रही है इस हंड्रेड परसेंट मुनाफे वाले सेक्टर को घाटे में डालने का काम नेता नहीं कर सकते. आखिर उनका भी तो जनता के प्रति हो या न हो धंधे के प्रति कोई ईमान तो है ही. इसीलिए इंद्र को उम्मीद थी कि पक्ष के नेता हों या विपक्ष के, साइकिल-मोटरसाइकिल या हाथी-घोड़ा से सवारी करनेवाले हों, बिजली युग में भी ढिबरी जलानेवाले हों, हाथ-पैर का इस्तेमाल करते हों या तीर-तलवार का, या फिर फूल से फुसलाने वाले हों... कोई भी लोकपाल के फंदे में अपनी गर्दन नहीं फंसवाना चाहेगा. चाल-चरित्र-चेहरे की बात चाहे कोई कितनी भी कर ले हैं तो सभी नेता ही. और ये तो सभी जानते हैं कि नेता सिर्फ नेता होते हैं जनता नहीं कि कभी भी कहीं भी बेवकूफ बन जाय. लोकपाल को पास कराने का मतलब तो यही होता. और इंद्र महाराज को भरोसा था कि धरती के नेता लोकपाल को खुद पास कराकर अपनी हालत आ बैल मुझे मार वाली नहीं करेंगे.
कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये कि इंद्र महाराज खुश थे कि लोकपाल लटक गया है और बला टल गई है. हाल फिलहाल इंद्रासन पर अब कोई खतरा मंडराने वाला नहीं. अगर देवलोक का कोई बाशिंदा लोकपाल के लिए चूं चपड़ करेगा तो धरती के नेताओं की तरह वो भी निपट लेंगे. आखिर वो देवेश हैं, जिनके मंत्रिमंडल में एक से एक दिग्विजयी देव भरे पड़े हैं. इंद्र महाराज ने गर्व से गरदन अकड़ाई. शीशे में खुद को निहारा और निकल पड़े आदेश देने के लिए. लोकपाल के लटकने की खुशी में स्वर्ग में जश्न मनाने का आदेश देने.
इधर धरती पर नेता लोकपाल के लटकने की खुशी में एक दूसरे को बधाई दे रहे थे और शुक्र मना रहे थे कि बला टल गई. फिर सबने एक स्वर में शपथ ली कि हम संसद का अपमान नहीं होने देंगे. लोकपाल को कभी नहीं आने देंगे. अगर लोकपाल आया तो कभी पास नहीं होने देंगे. खंचिया भर संशोधन लाएंगे और मजबूत क्या कमजोर लोकपाल भी नहीं बनाएंगे. इस शपथ के बाद नेता भी लोकपाल लटकने की खुशी में जश्न मनाने निकल पड़े. आप भी जश्न मनाइए कि लोकपाल पास नहीं हुआ. आखिर पास हो भी जाता तो क्या होता. कितने कानून बने और पास हुए. लेकिन न नेता बदले और न देश और न ही बदली देश की जनता की किस्मत. जो कभी बदलेगी भी नहीं, क्योंकि जनता की किस्मत में कुछ है ही नहीं बदलने के लिए.
(यह व्यंग्य रचना पटना से निकलने वाली पत्रिका ‘आवाज जन मन’ की में प्रकाशित है)
Sunday, March 4, 2012
Wednesday, December 1, 2010
जंगल में चुनाव (काव्य-कथा)
जंगल में आम चुनाव था, सभी जानवर चुनावी तैयारियों में व्यस्त थे
एक चुनावी सभा में वनराज सिंह जंगल के जानवरों को संबोधित कर रहे थे...
‘हमारे पूर्वजों ने शुरु से ही शासन किया है, आपसब पर ध्यान दिया है
हम चाहते तो राज करते रह सकते थे, लेकिन जंगल में क्रांति का बिगुल सुन
लोकतंत्र का आदर करते हुए,चुनाव का निर्णय लिया
और, स्वयं प्रत्याशी बनकर खड़े हैं, पुन: राज करने को अड़े हैं
मैं वादा करता हूं कि आप का ध्यान रखूंगा, जंगल के हित में काम करूंगा
जीतते ही मांस-भक्षण त्याग दूंगा, शाकाहारी बन जाऊंगा’
... ये सुनते ही एक जानवर थोड़ा कुलबुलाया, थोड़ा कसमसाया
और फिर जोर से चिल्लाया...
‘कुछ तो शर्म कीजिए, जानवर और इंसान में फर्क कीजिए
ऐसा वादा इंसानों में किया जाता है, कह के कुछ और कुछ और किया जाता है
अरे हम जानवर हैं इंसान नहीं, चाहे जैसे भी हैं बेईमान नहीं’
एक चुनावी सभा में वनराज सिंह जंगल के जानवरों को संबोधित कर रहे थे...
‘हमारे पूर्वजों ने शुरु से ही शासन किया है, आपसब पर ध्यान दिया है
हम चाहते तो राज करते रह सकते थे, लेकिन जंगल में क्रांति का बिगुल सुन
लोकतंत्र का आदर करते हुए,चुनाव का निर्णय लिया
और, स्वयं प्रत्याशी बनकर खड़े हैं, पुन: राज करने को अड़े हैं
मैं वादा करता हूं कि आप का ध्यान रखूंगा, जंगल के हित में काम करूंगा
जीतते ही मांस-भक्षण त्याग दूंगा, शाकाहारी बन जाऊंगा’
... ये सुनते ही एक जानवर थोड़ा कुलबुलाया, थोड़ा कसमसाया
और फिर जोर से चिल्लाया...
‘कुछ तो शर्म कीजिए, जानवर और इंसान में फर्क कीजिए
ऐसा वादा इंसानों में किया जाता है, कह के कुछ और कुछ और किया जाता है
अरे हम जानवर हैं इंसान नहीं, चाहे जैसे भी हैं बेईमान नहीं’
Wednesday, July 7, 2010
जमूरे के आइने में मीडिया का चेहरा
ड्रिम-ड्रिम...ड्रिम-ड्रिम...ड्रिम-ड्रिम... भीड़ को पास आते देख मौका बढ़िया समझकर मदारी ने डमरू बजाना शुरु ही किया था कि जमूरा बोल पड़ा...
‘उस्ताद... उस्ताद जरा ठहर जाओ...’
क्यों...? मदारी ने जमूरे को ऐसी टेढ़ी निगाहों से देखा मानो खा जाएगा...
‘उस्ताद अभी मूड नहीं है तमाशा दिखाने का... थोड़ी देर बाद दिखाएंगे तमाशा’ जमूरे के स्वर में अनुरोध था...
‘अबे चुप रह... मूड नहीं है... अब तेरे मूड पर हमारा तमाशा चलेगा’... मदारी ने जमूरे को झिड़क दिया...
क्यों उस्ताद... आखिर मैं भी तुम्हारा जमूरा हूं... मुझसे ही तो तुम्हारा तमाशा चलता है... जमूरे ने कहा..
जमूरे की बात सुन मदारी ने तीखे स्वर में कहा- ‘तो क्या तुम्हारा गुलाम बन जाऊं... फिर तो हो गया काम... अरे अपने देश के नेता जनता के दम पर ही राजयोग भोगते हैं... लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि वो जनता को सिर पर बिठा लें... फिर तो हो गया राज योग... तब तो न राज होगा और न भोग का योग बनेगा...’
‘लेकिन उस्ताद...!’ जमूरे ने कुछ कहना चाहा, लेकिन मदारी ने डांट दिया-
‘अबे चुप... चल तैयार हो जा पब्लिक जुट गई है... और अपना चेहरा सुधार.. वर्ना इस मुर्दा चेहरे को पब्लिक देखने से रही’
इतना कहकर मदारी ने जमूरे की ओर से मुंह फेरा और पब्लिक से मुखातिब हो गया... जमूरा भी मन मारकर तमाशा दिखाने के लिए तैयार हो गया...
‘मेहरबान... कदरदान...!’ मदारी ने जमूरे पर निगाह मारी और पब्लिक से बोला... जमूरा तैयार है आपको तमाशा दिखाने के लिए... जमूरे...?
‘बोलो उस्ताद...!’ जमूरे ने मरी आवाज में कहा..
‘तमाशा दिखाएगा...?’ मदारी ने जोर से पूछा
‘दिखाना ही पड़ेगा उस्ताद...’ जमूरे ने उसी अंदाज में कहा
‘जो पूछूंगा बताएगा...?’ जमूरे का जवाब सुन मदारी ने संशय भरे स्वर में पूछा
‘बताऊंगा उस्ताद...’ जमूरे ने कहा... जमूरे का जवाब सुन मदारी ने पूछना शुरु किया-
‘तो बता... इस हफ्ते की शख्सियत...?’
‘धोनी की घोड़ी...’
क्या मतलब...?
मतलब साफ है उस्ताद...! जमूरे ने कहा- ‘धोनी के शादी के दिन जब मीडिया वालों को कुछ नहीं मिला तो उन्होने धोनी जिस घोड़ी पर चढ़े उसे ही ब्रेकिंग और एक्सक्लूसिव बनाकर दिखाना शुरु कर दिया.. अब तुम्ही बताओ उस्ताद मीडिया की नजरों में जो एक्सक्लूसिव है वो खास तो है ही अब चाहे वो घोड़ी ही क्यों न हो...’
जमूरे को लेक्चर देते देख मदारी ने तुरंत बात मोड़ी- ‘अच्छा अब रहने दे और चल अगले सवाल का जवाब दे...
‘पूछो उस्ताद...’
‘तो बता,... ‘आज के समय में सच के नाम पर बोला जानेवाला सबसे बड़ा झूठ...?’ मदारी ने जमूरे से अगला प्रश्न किया...
‘टीवी पर आने वाले रिअलटी शो... इस समय इनसे बड़ा झूठ कोई नहीं है... टीआरपी के चक्कर में रियल के नाम पर क्या कुछ नहीं दिखाया जाता है।’
‘जहां न पहुंचे रवि...?’ मदारी ने जैसे ही अगला सवाल पूछना चाहा, भीड में से कोई बोल उठा- ‘वहां पहुंचे कवि...’
‘… नहीं उस्ताद, जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे मीडिया...’ मीडिया को देखो हर जगह पहुंचा नजर आता है, चाहे जरुरत हो या न हो...
‘अच्छा जमूरे पल में तोला-पल में माशा मुहावरे का मतलब बता...’ जमूरे को मीडिया की धोती उतारते देख मदारी ने उसका ध्यान हटाने के लिए अगला सवाल किया।
‘उस्ताद, कभी अपने तमाशे से मौका निकाल कर मीडिया का तमाशा देख लो... मतलब अपने आप समझ में आ जाएगा...’ जमूरे ने जवाब दिया
‘क्या मतलब...?’
‘अरे उस्ताद...!’ जमूरे ने जैसे वो उकता गया हो वैसे जवाब दिया- ‘क्या इत्ती सी बात को भेजे में घुसाने के लिए परेशान हो... उस्ताद मीडिया ही तो है, जो पल में तोला-पल में माशा नजर आती है... अभी देखो कितने दिन की बात है- इंडियन टीम श्रीलंका में न्यूजीलैंड को हराकर आईसीसी की टॉप रैंकिंग पर पहुंच गई थी तो मीडिया ने टीम की तारीफ में जमीन आसमान एक कर दिया था.. लेकिन अगले ही दिन श्रीलंका के हाथों पिटकर इंडियन टीम जब अपनी टॉप की रैंकिंग गंवा बैठी तो इस मीडिया ने टीम की मिट्टी पलीद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी... यही नहीं जब इंडिया ने फिर श्रीलंका को हरा कर कांपैक कप पर कब्जा जमा लिया तो फिर मीडिया इंडियन टीम की आरती उतारने लगा... अब तुम्ही बताओ उस्ताद, पल में तोला पल में माशा के मुहावरे के लिए मीडिया से बड़ा उदाहरण कौन है..’
जमूरे के जवाब पर भीड़ ने ताली बजाई…
अच्छा ये बता सबसे बडा तमाशेबाज... मदारी ने ये सोचकर कि जमूरा इसबार जवाब में उसे बतायेगा और फिर उसका और पब्लिक का ध्यान मीडिया से हटकर दूसरी ओर हो जाएगा...
उस्ताद सबसे बड़ा तमाशेबाज भी मीडया ही है... 24 घंटे मीडिया तमाशा ही तो दिखाता रहता है... कभी ब्रेकिंग, तो कभी एक्सक्लूसिव तो कभी सबसे पहले तो कभी सबसे बड़ी खबर के नाम पर... ये तमाशा नहीं तो और क्या है... और पब्लिक भी सबकुछ जानने समझने के बावजूद इस तमाशे को खूब देखती है... अब तुम्ही बताओ उस्ताद कि मीडिया से बड़ा तमाशेबाज कौन है...
जमूरे की ये बात सुनकर भीड़ में सन्नाटा छा गया उधर जमूरे को मीडिया की मिट्टी पलीद करते देख मदारी घबड़ा गया... उसे डर लगने लगा कि जमूरे की इस कारस्तानी का खामियाजा कहीं उसे न भुगतना पड़े और जमूरे से नाराज मीडिया उसकी चढ्ढी न उतार दे... मदारी मीडिया की ताकत से वाकिफ था... और जानता था कि अभी मीडिया की खिंचाई पर ताली बजा रही पब्लिक उस समय भी सिर्फ ताली ही बजाएगी... आखिर पब्लिक को और आता ही क्या है... नहीं तो क्या नेता, क्या मीडिया और क्या उस जैसा मदारी पब्लिक को बेवकूफ बनाकर अपनी अपनी रोटिया सेंकते रहे... मदारी को लगा कि बात हद से ज्यादा बिगड़ जाए और मीडिया को भनक लगे उससे पहले ही तमाशा बंद कर देने में भलाई है... लिहाजा उसने जमूरे को झिड़का और तमाशा बंद कर दिया... तमाशा खत्म होते ही पब्लिक भी खिसक ली...
उधर अकेला पडा जमूरा सोच रहा था कि उसने आखिर क्या गलत कहा था, जो उस्ताद ने बीच में ही तमाशा रोक दिया... अगर आपको जमूरे की गलती दिखाई दे तो बताइएगा जरूर...
Thursday, March 11, 2010
बनारस… जिंदगी और जिंदादिली का शहर
(बनारस न मेरी जन्मभूमि है और न ही कर्मभूमि... फिर भी ये शहर मुझे अपना लगता है... अपनी लगती है इसकी आबो हवा और पूरी मस्ती के साथ छलकती यहां की जिंदगी... टुकड़ों-टुकड़ों में कई बार इस शहर में आया हूं मैं... और जितनी बार आया हूं... कुछ और अधिक इसे अपने दिल में बसा कर लौटा हूं... तभी तो दूर रहने के बावजूद दिल के बेहद करीब है ये शहर... मुझे लगता है कि आज की इस व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं वाले इस दौर में, जहां पैसा ज्यादा मायने रखने लगा है, जिंदगी कम... इस शहर से हमें सीखने की जरुरत है...इस बार इसी शहर के बारे में...)
साहित्य में मानवीय संवेदनाओं और अनुभूतियों के नौ रस माने गये हैं... लेकिन इसके अलावा भी एक रस और है, जिसे साहित्य के पुरोधा पकड़ने से चूक गये... लेकिन जिसे लोक ने आत्मसात कर लिया... वह है बनारस... जीवन का दसवां रस... जिंदगी की जिंदादिली का रस... जिसमें साहित्य के सारे रस समाहित होकर जिंदगी को नया अर्थ देते हैं... जिंदगी को मस्ती और फक्कड़पन के साथ जीने का अर्थ... कमियों और दुख में भी जिंदगी के सुख को तलाश लेने का अर्थ़...
बहुत पुराना है बनारस का इतिहास... संभवतः सभ्यता के विकास से जुडा हुआ... बनारस की प्राचीनता का उल्लेख करते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार मार्क ट्वेन ने कहा है कि बनारस इतिहास से भी प्राचीन है... यहां तक कि किंवदन्तियों से भी... और यदि दोनों को मिला दिया जाय तो दोनों से प्राचीन... वेद-पुराणों से लेकर सभी धर्म ग्रन्थो में उल्लेख हुआ है बनारस का, अपने प्राचीन नाम काशी के मार्फत... महात्म्य इसका इतना कि सबसे बडे पुराण स्कन्द महापुराण में काशी महिमा को लेकर काशी खंड के नाम से एक अलग विभाग ही रच दिया गया... धर्मग्रन्थों में मोक्ष नगरी की ख्याति है इसकी... दूर दूर से आते हैं लोग यहां मृत्यु का आलिगंन करने... दुनिया में इकलौती जगह है यह जहां कहा जाता है कि मरने वाले को सीधे मोक्ष मिलता है क्योंकि बाबा विश्वनाथ मरने वाले के कान में तारक मंत्र देकर उसका उद्धार कर देते हैं...
बनारस महज एक शहर नहीं है... बल्कि उससे आगे बहुत कुछ है... जिंदगी का भरपूर फलसफा है बनारस... अड़भंगी, मस्त-मौला और हिन्दू धर्म के सबसे अनूठे देव भोलेनाथ की नगरी है बनारस... और यह साबित भी होता है यहां के लोक जीवन में मस्ती की मिठास को देखते हुए... दुनिया का इकलौता शहर है बनारस जहां के लोग स्यापे में नहीं, जीने में यकीन रखते हैं... बेफिक्री और बिंदासपने के साथ जिंदगी को जीने में... दुनिया के कोने कोने से लोग आते हैं, बनारस को देखने समझने...
जिंदगी को हर पल जीने का दर्शन गढने वाला बनारस मरने की तहजीब भी सिखाता है, ताकी जिंदगी का जश्न जारी रहे... यहां हर पल जीवन का स्पन्दन महसूस होता है, क्योंकि यहां मृत्यु का भय नहीं सताता... सदियों पहले बनारस ने कबीर के माध्यम से इस भय को नकार दिया था- हम न मरब मरिहैं संसारा...
अपनी बोली बानी और अंदाज से अनूठा और सबसे अलग शहर है बनारस... भोजपुरी यहां की पारपरिक और लोक की भाषा है... भोजपुरी के आदि कवि कबीर के शहर बनारस में भोजपुरी का रंग निराला है... अपनी मिठास के लिये मशहूर भोजपुरी का रंग बनारस की आबो हवा में घुलकर और खिल उठता है... तभी तो यहां की बोली में अनिवार्य रुप से शामिल गालियां भी किसी को आहत नहीं करती... बनारस ने अपनी शैली में भोजपुरी को विशिष्ट पहचान दिलाई है देश दुनिया में... क्योंकि भोजपुरी यहां महज एक भाषा नहीं जीवन शैली है... जीवन को जीने का ढंग है... भोजपुरी को एक अलग तेवर दिया है बनारस ने...
यदि भारत को किसी एक जगह खोजना है, तो बनारस ही वह जगह है जहां पूरा हिंदुस्तान दिखाई पड़ता है... यहां सारे धर्म, संप्रदायों के लोग बसते हैं... देश के कोने कोने से आए लोग मिल जाएंगे, यहां की परंपरा और संस्कृति में अपने को घोलते हुए... बनारस की अपनी परंपरा और अपनी संस्कृति रही है... बनारस ने परंपरा से कुछ सीखा है कि नहीं ये कहना भले मुहाल हो, कितुं परंपरा ने बनारस से अवश्य सीखा है और अपने को समृद्ध किया है, ये जरुर कहा जा सकता है... बाबा विश्वनाथ के शहर बनारस ने उनके फक्कड़पने के साथ जीने का जो ढंग अपनाया उसे मध्यकाल में कबीर ने प्रखर रुप दिया और जिसे भारतेन्दु, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, बिस्मिल्लाह खान जैसों ने आगे बढाया और जिसे काशीनाथ सिंह जैसे साहित्यकार वर्तमान में और परवान चढा रहे हैं...
बनारस खास का नहीं, आम का... सबका शहर है... सबके लिए है... हमारे धर्मग्रन्थों मे लिखा है कि कोई कहीं जाए या न जाए, उसे एक बार काशी जरुर जाना चाहिए... और काशी में आकर कहीं नहीं जाना चाहिए... सच बात है, लेकिन उससे भी बडा सच यह है कि जिसने बनारस को देख लिया... बनारस को जान लिया... बनारस उससे कभी छूट नहीं सकता चाहे वह कहीं भी रहे... तभी तो बनारस में रहने वाले और बनारस को जानने समझने वाले एक ही स्वर में दुहराते हैं कि जो मजा बनारस में, वह मजा न पेरिस में न फारस में...
Tuesday, February 16, 2010
जमूरा हाजिर है जनाब
अथ मदारी-जमूरा संवाद कथा-1
ड्रिम-ड्रिम...ड्रिम-ड्रिम...ड्रिम-ड्रिम...
तमाशा शुरु करने की नीयत से जैसे ही मदारी ने डमरु बजाकर जमूरे को आवाज देनी चाही...जमूरा हांफता-भागता मदारी के पास पहुंच गया...
‘उस्ताद... उस्ताद...रुको... अभी तमाशा मत शुरु करना..’
क्यों...? जमूरे की बात पर मदारी ने आश्चर्य व्यक्त किया- ‘लोग जुटने लगे हैं, फिर तमाशा दिखाने में क्या हर्ज है...?’
‘उस्ताद, देखो आज तुम तमाशा दिखाने से पहले पब्लिक के बीच एक ऐलान करो!’ जमूरे ने मदारी से कहा।
‘कैसा ऐलान..?’
‘अपनी वसीयत का...’
‘वसीयत... कैसी वसीयत.. कैसा ऐलान..?’ मदारी ने आश्चर्य जताया।
‘उस्ताद.. आज तुम पब्लिक के बीच अपनी वसीयत का ऐलान करो कि जहां भी तुम्हारी मूर्ति बनेगी... बगल में जमूरे की भी मूर्ति बनेगी..’
क्या...? मदारी चौंका
हां उस्ताद...! जमूरा खुशामदी लहजे में बोला
‘क्या फालतू बातें करता है... कौन हमारी मूर्ति बनाएगा और क्यों...?’ मदारी ने झिड़का।
‘उस्ताद इस फानी दुनिया में क्यों जैसा फालतू सवाल नहीं पूछना चाहिए…’ जमूरे ने अपने जवाब में दार्शनिकता का पुट लाते हुए कहा- ‘यहां हर काम के लिए वाजिब जवाब मौजूद है... और जहां तक कौन बनवाएगा हमारी मूर्ति का सवाल है, तो ये पब्लिक है, ना... ये पब्लिक ही बनवाएगी हमारी मूर्ति... और न भी बनवाए तो पब्लिक के पैसे यानी सरकारी पैसे से हम खुद बनवा लेंगे और नाम पब्लिक का दे देंगे..!’
‘पब्लिक.. क्यों बनवाएगी हमारी मूर्ति... हम कोई नेता थोड़े है.. और न किसी स्टेट के मुख्यमंत्री ही हैं..?’ मदारी ने साश्चर्य पूछा।
‘तो इनसे कम भी तो नहीं हैं उस्ताद... नेता भी तमाशा दिखाता है, हम भी वही करते हैं... नेता लोकतंत्र का तमाशा दिखाता है... हम लोक को तमाशा दिखाते हैं... फर्क बस यही है, कि बार बार बेवकूफ बनने के बावजूद लोग नेता पर विश्वास कर उसे फिर से लोकतंत्र का तमाशा जारी रखने की कमान सौंप देते हैं, जबकि मदारी की हाथ की सफाई एकबार पकड़ाई में आने के बाद कोई उसका तमाशा नहीं देखना चाहता...’ जमूरे के पास मदारी की हर शंका-आशंका को दूर करने का तुरत फुरत जवाब मौजूद था।
‘अच्छा रहने दे... रहने दे.. चल तमाशा दिखाने की तैयारी शुरु कर.. देख पब्लिक जुट गई है..’ जमूरे की बातों को अनसुनी करते हुए मदारी ने कहा।
‘जुटने दो उस्ताद... पहले तुम बताओ वसीयत का ऐलान कर रहे हो कि नहीं..’
‘नहीं.. मैं नहीं कर रहा किसी वसीयत का ऐलान..’ मदारी ने साफ इंकार कर दिया।
‘कर दो उस्ताद...’ जमूरे ने चेताया- ‘वैसे नहीं करोगे तब भी... दुनिया से तुम्हारी रुखसती के बाद..तुम्हारी वसीयत तो पब्लिक के बीच आ ही जाएगी, जिसमें तुम्हारे उत्तराधिकारी के रुप में मेरा नाम दर्ज रहेगा.. साथ ही ये ऐलान भी कि जहां जहां तुम्हारी मूर्ति बनेगी बगल में मेरी भी मूर्ति स्थापित होगी..।’
‘अच्छा चल बहुत बकबक कर लिया अब कुछ पब्लिक को भी तमाशा दिखा, नहीं तो रोटी नहीं मिलेगी...’ इतना कहकर मदारी ने जमूरे को कुछ बोलने का मौका दिए बगैर डमरु बजाकर पब्लिक से मुखातिब हो गया...
ड्रिम-ड्रिम...ड्रिम-ड्रिम...ड्रिम-ड्रिम... ‘हां तो साहेबान, मेहरबान, कदरदान... मदारी जमूरे के संग हाजिर है तमाशा दिखाने को... जमूरे तैयार है...?’ मदारी ने जमूरे से पूछा।
‘तैयार हूं...’ अपनी बात न मानने से नाराज जमूरे ने गुस्से से मदारी की ओर देखते हुए उत्साहहीन आवाज में कहा...
जैसे नेता पब्लिक के गुस्से को नजरअंदाज कर मुस्कुराता है, क्योंकि वो जानता है कि पब्लिक कितना भी छान पगहा तुराए..बंधना तो उसी के खूंटे में है। मदारी ने भी जमूरे के गुस्से को ठीक उसी तरह नजरअंदाज करते हुए मजे हुए नेता की तरह मुस्कुराया और पब्लिक से मुखातिब हो गया- ‘साहेबान... जमूरा तैयार है आपको तमाशा दिखाने के लिए... एकबार जोरदार तालियों से इसका हौसला बढ़ाइए...’
तमाशा देखने को जुटी भीड़ ने जोरदार तालियां बजाई..
‘जमूरे तमाशा दिखायेगा...?’ भीड़ का उत्साह देख मदारी का स्वर भी तेज हो गया।
‘दिखाऊंगा...’ जमूरे के स्वर का रोष अभी गायब नहीं हुआ था।
‘जो पूछंगा बताएगा...?’
‘बताऊंगा...’
‘सच-सच बताएगा कि झूठ बोलेगा’
‘अपने देश की नेताओं की कसम उस्ताद...’ अब तक जमूरा भी सारे शिकवे शिकायत भूलकर अपनी रौ में आ चुका था- ‘जो कहूंगा सच कहूंगा.. सच के सिवा कुछ नहीं कहूंगा..’ जमूरे की कसम पर भीड़ ने जोरदार ठहाका लगाया
‘जमूरे तेरी बात पर पब्लिक हंस रही है..’
‘हंसने दो उस्ताद... पब्लिक जब अपने पर नहीं हंस सकती तो जमूरे पर ही सही... लेकिन मैने झूठी कसम नहीं खाई है... इसकी गवाह ये पब्लिक ही है...’
‘क्या बकता है...?’ भीड़ से कोई चिल्लाया, ‘हमने कब नेताओं को सच का मानक माना है... पब्लिक को तो नेताओं की बात पर विश्वास ही नहीं रहा..’
‘ये सब झूठ बोलते हैं उस्ताद... इन्हे किसी की बात पर विश्वास हो या न हो... नेता की बात और वादे को तो जरुर सच मानते हैं...’ जमूरा बात काटते हुए बोला- ‘अगर सच नहीं मानते तो फिर बार-बार नेताओं के वादे पर यकीन कर उन्हे जिताते क्यों... जबकि नेता पब्लिक से किया अपना कोई वादा नहीं पूरा करता है... ये सब जानते हैं...’
जमूरे की बात से कहीं पब्लिक भड़क न जाए, इसलिए मदारी ने तुरंत बात मोड़ दी और जमूरे को कोने में धकेलकर खुद ही अकेले तमाशा दिखाने लगा... उधर कोने में अकेले खड़ा जमूरा सोच रहा था कि सच कहना क्या इतना बड़ा जुर्म है, जो हमेशा सच को कोने में दरकिनार कर दिया जाता है...
ड्रिम-ड्रिम...ड्रिम-ड्रिम...ड्रिम-ड्रिम...
तमाशा शुरु करने की नीयत से जैसे ही मदारी ने डमरु बजाकर जमूरे को आवाज देनी चाही...जमूरा हांफता-भागता मदारी के पास पहुंच गया...
‘उस्ताद... उस्ताद...रुको... अभी तमाशा मत शुरु करना..’
क्यों...? जमूरे की बात पर मदारी ने आश्चर्य व्यक्त किया- ‘लोग जुटने लगे हैं, फिर तमाशा दिखाने में क्या हर्ज है...?’
‘उस्ताद, देखो आज तुम तमाशा दिखाने से पहले पब्लिक के बीच एक ऐलान करो!’ जमूरे ने मदारी से कहा।
‘कैसा ऐलान..?’
‘अपनी वसीयत का...’
‘वसीयत... कैसी वसीयत.. कैसा ऐलान..?’ मदारी ने आश्चर्य जताया।
‘उस्ताद.. आज तुम पब्लिक के बीच अपनी वसीयत का ऐलान करो कि जहां भी तुम्हारी मूर्ति बनेगी... बगल में जमूरे की भी मूर्ति बनेगी..’
क्या...? मदारी चौंका
हां उस्ताद...! जमूरा खुशामदी लहजे में बोला
‘क्या फालतू बातें करता है... कौन हमारी मूर्ति बनाएगा और क्यों...?’ मदारी ने झिड़का।
‘उस्ताद इस फानी दुनिया में क्यों जैसा फालतू सवाल नहीं पूछना चाहिए…’ जमूरे ने अपने जवाब में दार्शनिकता का पुट लाते हुए कहा- ‘यहां हर काम के लिए वाजिब जवाब मौजूद है... और जहां तक कौन बनवाएगा हमारी मूर्ति का सवाल है, तो ये पब्लिक है, ना... ये पब्लिक ही बनवाएगी हमारी मूर्ति... और न भी बनवाए तो पब्लिक के पैसे यानी सरकारी पैसे से हम खुद बनवा लेंगे और नाम पब्लिक का दे देंगे..!’
‘पब्लिक.. क्यों बनवाएगी हमारी मूर्ति... हम कोई नेता थोड़े है.. और न किसी स्टेट के मुख्यमंत्री ही हैं..?’ मदारी ने साश्चर्य पूछा।
‘तो इनसे कम भी तो नहीं हैं उस्ताद... नेता भी तमाशा दिखाता है, हम भी वही करते हैं... नेता लोकतंत्र का तमाशा दिखाता है... हम लोक को तमाशा दिखाते हैं... फर्क बस यही है, कि बार बार बेवकूफ बनने के बावजूद लोग नेता पर विश्वास कर उसे फिर से लोकतंत्र का तमाशा जारी रखने की कमान सौंप देते हैं, जबकि मदारी की हाथ की सफाई एकबार पकड़ाई में आने के बाद कोई उसका तमाशा नहीं देखना चाहता...’ जमूरे के पास मदारी की हर शंका-आशंका को दूर करने का तुरत फुरत जवाब मौजूद था।
‘अच्छा रहने दे... रहने दे.. चल तमाशा दिखाने की तैयारी शुरु कर.. देख पब्लिक जुट गई है..’ जमूरे की बातों को अनसुनी करते हुए मदारी ने कहा।
‘जुटने दो उस्ताद... पहले तुम बताओ वसीयत का ऐलान कर रहे हो कि नहीं..’
‘नहीं.. मैं नहीं कर रहा किसी वसीयत का ऐलान..’ मदारी ने साफ इंकार कर दिया।
‘कर दो उस्ताद...’ जमूरे ने चेताया- ‘वैसे नहीं करोगे तब भी... दुनिया से तुम्हारी रुखसती के बाद..तुम्हारी वसीयत तो पब्लिक के बीच आ ही जाएगी, जिसमें तुम्हारे उत्तराधिकारी के रुप में मेरा नाम दर्ज रहेगा.. साथ ही ये ऐलान भी कि जहां जहां तुम्हारी मूर्ति बनेगी बगल में मेरी भी मूर्ति स्थापित होगी..।’
‘अच्छा चल बहुत बकबक कर लिया अब कुछ पब्लिक को भी तमाशा दिखा, नहीं तो रोटी नहीं मिलेगी...’ इतना कहकर मदारी ने जमूरे को कुछ बोलने का मौका दिए बगैर डमरु बजाकर पब्लिक से मुखातिब हो गया...
ड्रिम-ड्रिम...ड्रिम-ड्रिम...ड्रिम-ड्रिम... ‘हां तो साहेबान, मेहरबान, कदरदान... मदारी जमूरे के संग हाजिर है तमाशा दिखाने को... जमूरे तैयार है...?’ मदारी ने जमूरे से पूछा।
‘तैयार हूं...’ अपनी बात न मानने से नाराज जमूरे ने गुस्से से मदारी की ओर देखते हुए उत्साहहीन आवाज में कहा...
जैसे नेता पब्लिक के गुस्से को नजरअंदाज कर मुस्कुराता है, क्योंकि वो जानता है कि पब्लिक कितना भी छान पगहा तुराए..बंधना तो उसी के खूंटे में है। मदारी ने भी जमूरे के गुस्से को ठीक उसी तरह नजरअंदाज करते हुए मजे हुए नेता की तरह मुस्कुराया और पब्लिक से मुखातिब हो गया- ‘साहेबान... जमूरा तैयार है आपको तमाशा दिखाने के लिए... एकबार जोरदार तालियों से इसका हौसला बढ़ाइए...’
तमाशा देखने को जुटी भीड़ ने जोरदार तालियां बजाई..
‘जमूरे तमाशा दिखायेगा...?’ भीड़ का उत्साह देख मदारी का स्वर भी तेज हो गया।
‘दिखाऊंगा...’ जमूरे के स्वर का रोष अभी गायब नहीं हुआ था।
‘जो पूछंगा बताएगा...?’
‘बताऊंगा...’
‘सच-सच बताएगा कि झूठ बोलेगा’
‘अपने देश की नेताओं की कसम उस्ताद...’ अब तक जमूरा भी सारे शिकवे शिकायत भूलकर अपनी रौ में आ चुका था- ‘जो कहूंगा सच कहूंगा.. सच के सिवा कुछ नहीं कहूंगा..’ जमूरे की कसम पर भीड़ ने जोरदार ठहाका लगाया
‘जमूरे तेरी बात पर पब्लिक हंस रही है..’
‘हंसने दो उस्ताद... पब्लिक जब अपने पर नहीं हंस सकती तो जमूरे पर ही सही... लेकिन मैने झूठी कसम नहीं खाई है... इसकी गवाह ये पब्लिक ही है...’
‘क्या बकता है...?’ भीड़ से कोई चिल्लाया, ‘हमने कब नेताओं को सच का मानक माना है... पब्लिक को तो नेताओं की बात पर विश्वास ही नहीं रहा..’
‘ये सब झूठ बोलते हैं उस्ताद... इन्हे किसी की बात पर विश्वास हो या न हो... नेता की बात और वादे को तो जरुर सच मानते हैं...’ जमूरा बात काटते हुए बोला- ‘अगर सच नहीं मानते तो फिर बार-बार नेताओं के वादे पर यकीन कर उन्हे जिताते क्यों... जबकि नेता पब्लिक से किया अपना कोई वादा नहीं पूरा करता है... ये सब जानते हैं...’
जमूरे की बात से कहीं पब्लिक भड़क न जाए, इसलिए मदारी ने तुरंत बात मोड़ दी और जमूरे को कोने में धकेलकर खुद ही अकेले तमाशा दिखाने लगा... उधर कोने में अकेले खड़ा जमूरा सोच रहा था कि सच कहना क्या इतना बड़ा जुर्म है, जो हमेशा सच को कोने में दरकिनार कर दिया जाता है...
Sunday, February 14, 2010
जमूरे के कोने की जरुरत क्यों...?
दिल के साथ बहुत मगजमारी के बाद आखिरकार मैं भी ब्लॉग पर अवतरित हो ही गया... लेकिन ये यदा यदा ही धर्मस्य मार्का अवतार नहीं है... और आप अवतार शब्द को लेकर कुछ और सोचें इससे पहले साफ कर दूं कि अवतरित होना या अवतार लेना अपने वश में नहीं है और न ही ऐसी कोई ख्वाहिश है... इसका ठेका तो अपने देश में कुछ स्वयंभू अवतारी और चमत्कारी पुरुषों ने ले ही रखा है, जो चमत्कार भी दिखाते हैं और अवतार भी... और अवतार और चमत्कार के चक्कर में लोगों को घनचक्कर की तरह नाच नचाते हैं...
दरअसल अवतरित होने से यहां आशय मेरा सिर्फ ब्लॉग पर लिखने भर से है... अब मैंने ब्लॉग बना लिया है, तो हो सकता है कभी कभी कुछ लिखूं भी... ब्लॉग पर आने से पहले मेरे सामने जो सबसे बड़ा सवाल था कि आखिर क्यों? ब्लॉग लिखकर मैं क्या तीर मार लूंगा...? और इस सवाल का सीधा सा जवाब है कि मैं ब्लॉग के जरिए कोई तीर मारने भी नहीं आया हूं... ये तो सिर्फ इस ग्लोबल दुनिया में उस कोने की तलाश है, जो अपना हो... जहां अपने हों... जिसपर मालिकाना हक सिर्फ चंद लोगों का न हो, बल्कि जो सबके लिए हो... दुनिया में मदारी बहुत हैं और हर कोई मदारी बनना चाहता है, लेकिन कोई उस जमूरे की आवाज नहीं सुनता जो उसे मदारी बनाता है... ये कोना जमूरे की आवाज को सामने लाने की कवायद भी है... यही नहीं, बहुत उलझी है नक्शे में गोल गोल दिखती ये दुनिया और बेतरतीबी से बहुत बंटी भी... जिसके सवाल बेहद उलझाते भी हैं... अपना कोना उन सवालों से जूझने और जवाब पाने की एक छोटी सी कोशिश भी है...
(इति ब्लॉग प्रस्तावना)
दरअसल अवतरित होने से यहां आशय मेरा सिर्फ ब्लॉग पर लिखने भर से है... अब मैंने ब्लॉग बना लिया है, तो हो सकता है कभी कभी कुछ लिखूं भी... ब्लॉग पर आने से पहले मेरे सामने जो सबसे बड़ा सवाल था कि आखिर क्यों? ब्लॉग लिखकर मैं क्या तीर मार लूंगा...? और इस सवाल का सीधा सा जवाब है कि मैं ब्लॉग के जरिए कोई तीर मारने भी नहीं आया हूं... ये तो सिर्फ इस ग्लोबल दुनिया में उस कोने की तलाश है, जो अपना हो... जहां अपने हों... जिसपर मालिकाना हक सिर्फ चंद लोगों का न हो, बल्कि जो सबके लिए हो... दुनिया में मदारी बहुत हैं और हर कोई मदारी बनना चाहता है, लेकिन कोई उस जमूरे की आवाज नहीं सुनता जो उसे मदारी बनाता है... ये कोना जमूरे की आवाज को सामने लाने की कवायद भी है... यही नहीं, बहुत उलझी है नक्शे में गोल गोल दिखती ये दुनिया और बेतरतीबी से बहुत बंटी भी... जिसके सवाल बेहद उलझाते भी हैं... अपना कोना उन सवालों से जूझने और जवाब पाने की एक छोटी सी कोशिश भी है...
(इति ब्लॉग प्रस्तावना)
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