Tuesday, February 16, 2010

जमूरा हाजिर है जनाब

अथ मदारी-जमूरा संवाद कथा-1
ड्रिम-ड्रिम...ड्रिम-ड्रिम...ड्रिम-ड्रिम...
तमाशा शुरु करने की नीयत से जैसे ही मदारी ने डमरु बजाकर जमूरे को आवाज देनी चाही...जमूरा हांफता-भागता मदारी के पास पहुंच गया...
‘उस्ताद... उस्ताद...रुको... अभी तमाशा मत शुरु करना..’
क्यों...? जमूरे की बात पर मदारी ने आश्चर्य व्यक्त किया- ‘लोग जुटने लगे हैं, फिर तमाशा दिखाने में क्या हर्ज है...?’
‘उस्ताद, देखो आज तुम तमाशा दिखाने से पहले पब्लिक के बीच एक ऐलान करो!’ जमूरे ने मदारी से कहा।
‘कैसा ऐलान..?’
‘अपनी वसीयत का...’
‘वसीयत... कैसी वसीयत.. कैसा ऐलान..?’ मदारी ने आश्चर्य जताया।
‘उस्ताद.. आज तुम पब्लिक के बीच अपनी वसीयत का ऐलान करो कि जहां भी तुम्हारी मूर्ति बनेगी... बगल में जमूरे की भी मूर्ति बनेगी..’
क्या...? मदारी चौंका
हां उस्ताद...! जमूरा खुशामदी लहजे में बोला
‘क्या फालतू बातें करता है... कौन हमारी मूर्ति बनाएगा और क्यों...?’ मदारी ने झिड़का।
‘उस्ताद इस फानी दुनिया में क्यों जैसा फालतू सवाल नहीं पूछना चाहिए…’ जमूरे ने अपने जवाब में दार्शनिकता का पुट लाते हुए कहा- ‘यहां हर काम के लिए वाजिब जवाब मौजूद है... और जहां तक कौन बनवाएगा हमारी मूर्ति का सवाल है, तो ये पब्लिक है, ना... ये पब्लिक ही बनवाएगी हमारी मूर्ति... और न भी बनवाए तो पब्लिक के पैसे यानी सरकारी पैसे से हम खुद बनवा लेंगे और नाम पब्लिक का दे देंगे..!’
‘पब्लिक.. क्यों बनवाएगी हमारी मूर्ति... हम कोई नेता थोड़े है.. और न किसी स्टेट के मुख्यमंत्री ही हैं..?’ मदारी ने साश्चर्य पूछा।
‘तो इनसे कम भी तो नहीं हैं उस्ताद... नेता भी तमाशा दिखाता है, हम भी वही करते हैं... नेता लोकतंत्र का तमाशा दिखाता है... हम लोक को तमाशा दिखाते हैं... फर्क बस यही है, कि बार बार बेवकूफ बनने के बावजूद लोग नेता पर विश्वास कर उसे फिर से लोकतंत्र का तमाशा जारी रखने की कमान सौंप देते हैं, जबकि मदारी की हाथ की सफाई एकबार पकड़ाई में आने के बाद कोई उसका तमाशा नहीं देखना चाहता...’ जमूरे के पास मदारी की हर शंका-आशंका को दूर करने का तुरत फुरत जवाब मौजूद था।
‘अच्छा रहने दे... रहने दे.. चल तमाशा दिखाने की तैयारी शुरु कर.. देख पब्लिक जुट गई है..’ जमूरे की बातों को अनसुनी करते हुए मदारी ने कहा।
‘जुटने दो उस्ताद... पहले तुम बताओ वसीयत का ऐलान कर रहे हो कि नहीं..’
‘नहीं.. मैं नहीं कर रहा किसी वसीयत का ऐलान..’ मदारी ने साफ इंकार कर दिया।
‘कर दो उस्ताद...’ जमूरे ने चेताया- ‘वैसे नहीं करोगे तब भी... दुनिया से तुम्हारी रुखसती के बाद..तुम्हारी वसीयत तो पब्लिक के बीच आ ही जाएगी, जिसमें तुम्हारे उत्तराधिकारी के रुप में मेरा नाम दर्ज रहेगा.. साथ ही ये ऐलान भी कि जहां जहां तुम्हारी मूर्ति बनेगी बगल में मेरी भी मूर्ति स्थापित होगी..।’
‘अच्छा चल बहुत बकबक कर लिया अब कुछ पब्लिक को भी तमाशा दिखा, नहीं तो रोटी नहीं मिलेगी...’ इतना कहकर मदारी ने जमूरे को कुछ बोलने का मौका दिए बगैर डमरु बजाकर पब्लिक से मुखातिब हो गया...
ड्रिम-ड्रिम...ड्रिम-ड्रिम...ड्रिम-ड्रिम... ‘हां तो साहेबान, मेहरबान, कदरदान... मदारी जमूरे के संग हाजिर है तमाशा दिखाने को... जमूरे तैयार है...?’ मदारी ने जमूरे से पूछा।
‘तैयार हूं...’ अपनी बात न मानने से नाराज जमूरे ने गुस्से से मदारी की ओर देखते हुए उत्साहहीन आवाज में कहा...
जैसे नेता पब्लिक के गुस्से को नजरअंदाज कर मुस्कुराता है, क्योंकि वो जानता है कि पब्लिक कितना भी छान पगहा तुराए..बंधना तो उसी के खूंटे में है। मदारी ने भी जमूरे के गुस्से को ठीक उसी तरह नजरअंदाज करते हुए मजे हुए नेता की तरह मुस्कुराया और पब्लिक से मुखातिब हो गया- ‘साहेबान... जमूरा तैयार है आपको तमाशा दिखाने के लिए... एकबार जोरदार तालियों से इसका हौसला बढ़ाइए...’
तमाशा देखने को जुटी भीड़ ने जोरदार तालियां बजाई..
‘जमूरे तमाशा दिखायेगा...?’ भीड़ का उत्साह देख मदारी का स्वर भी तेज हो गया।
‘दिखाऊंगा...’ जमूरे के स्वर का रोष अभी गायब नहीं हुआ था।
‘जो पूछंगा बताएगा...?’
‘बताऊंगा...’
‘सच-सच बताएगा कि झूठ बोलेगा’
‘अपने देश की नेताओं की कसम उस्ताद...’ अब तक जमूरा भी सारे शिकवे शिकायत भूलकर अपनी रौ में आ चुका था- ‘जो कहूंगा सच कहूंगा.. सच के सिवा कुछ नहीं कहूंगा..’ जमूरे की कसम पर भीड़ ने जोरदार ठहाका लगाया
‘जमूरे तेरी बात पर पब्लिक हंस रही है..’
‘हंसने दो उस्ताद... पब्लिक जब अपने पर नहीं हंस सकती तो जमूरे पर ही सही... लेकिन मैने झूठी कसम नहीं खाई है... इसकी गवाह ये पब्लिक ही है...’
‘क्या बकता है...?’ भीड़ से कोई चिल्लाया, ‘हमने कब नेताओं को सच का मानक माना है... पब्लिक को तो नेताओं की बात पर विश्वास ही नहीं रहा..’
‘ये सब झूठ बोलते हैं उस्ताद... इन्हे किसी की बात पर विश्वास हो या न हो... नेता की बात और वादे को तो जरुर सच मानते हैं...’ जमूरा बात काटते हुए बोला- ‘अगर सच नहीं मानते तो फिर बार-बार नेताओं के वादे पर यकीन कर उन्हे जिताते क्यों... जबकि नेता पब्लिक से किया अपना कोई वादा नहीं पूरा करता है... ये सब जानते हैं...’
जमूरे की बात से कहीं पब्लिक भड़क न जाए, इसलिए मदारी ने तुरंत बात मोड़ दी और जमूरे को कोने में धकेलकर खुद ही अकेले तमाशा दिखाने लगा... उधर कोने में अकेले खड़ा जमूरा सोच रहा था कि सच कहना क्या इतना बड़ा जुर्म है, जो हमेशा सच को कोने में दरकिनार कर दिया जाता है...

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